CHHATTISGARH PARIKRAMA

आधी रात में केक काटने का चलन: उत्सव या दिखावा? 

अतुल मलिकराम

(लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

कुछ दिनों पहले ही मेरा जन्मदिन बीता, रात के 12 बजते ही अचानक से फोन बज उठा। जन्मदिन की बधाई देने के लिए परिचितों के फ़ोन और मैसेज की जैसे कतार सी लग गई, ऐसा लग रहा था मानों रात के 12 बजे का समय एकदम से विशेष बन गया हो। घर में भी हर कोई जाग रहा था, मेरी बिटियाँ हाथ में केक और चेहरे पर चिरपरिचित मुस्कान लिए मेरे पास आई। सभी की ख़ुशी का ध्यान रखते हुए रात में ही केक काटा गया और जन्मदिन मनाया गया। जन्मदिन तो ख़ुशी-ख़ुशी मन गया लेकिन मेरे मन में एक सवाल छोड़ गया कि बचपन में तो हम रात में केक नहीं काटा करते थे तो फिर यह रात में केक काटने का चलन आखिर क्यों चल पड़ा है और इसके पीछे क्या कारण है ??

मुझे आज भी याद है बचपन में जन्मदिन का आगाज़ सूरज की पहली किरण के साथ होता था। सुबह उठते ही सबसे पहले नहाना, फिर पूजा करना, और उसके बाद बड़ों का आशीर्वाद और सबकी बधाइयां लेना। यही हमारे लिए जन्मदिन होता था। लेकिन आजकल जन्मदिन की शुरुआत आधी रात में केक काटकर होने लगी है। सिर्फ जन्मदिन ही क्यों आजकल तो यह चलन ख़ुशी के हर मौके पर ही देखनें को मिलने लगा है। यह केवल युवा पीढ़ी तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि बड़ों-बच्चों, सभी के जन्मदिन या विवाह की सालगिरह पर रात में केक काटा जाने लगा है। यह चलन इस कदर हमारी संस्कृति में हावी हो चुका है कि देवी-देवताओं की जयंती पर केक काटे जा रहे हैं। क्या यह सही है, या फिर हम पाश्चात्य संस्कृति की अंधी नकल में फंसते जा रहे हैं!!

इस बदलाव के पीछे एक बड़ी वजह है—हमारी तेजी से बदलती जीवनशैली, जो मुख्य रूप से वैश्वीकरण, आधुनिकता, और सोशल मीडिया से प्रभावित हो रही है। हम आजकल हर चीज़ को ग्लैमरस बनाना चाहते हैं। जन्मदिन हो या कोई भी खुशी का मौका, उसे यादगार बनाने के लिए हम हर संभव कोशिश करते हैं। और इसमें पाश्चात्य संस्कृति की चमक-धमक हमें सबसे ज्यादा आकर्षित कर रही है। ऊपर से आजकल सोशल मीडिया पर दिखावा करने की होड़ सी लगी हुई है, जहाँ कोई भी नया ट्रेंड चला, तो हमें भी उसकी नक़ल करना जरुरी हो गया है। वरना हमें पुरानी सोच का माना जाएगा। और पुरानी सोच का माना जाना हमें गंवारा नहीं होगा इसलिए हम भेड़चाल में चलने के आदि हो गये हैं। इसके अलावा, ऑनलाइन डिलीवरी सर्विसेज ने इस कल्चर को और भी बढ़ावा दिया है। अब आप आधी रात को भी अपने दरवाजे पर केक मंगवा सकते हैं, जिससे आधी रात में केक कटिंग का यह रिवाज और भी ज्यादा देखने को मिल रहा है।

रात में केक कटिंग का बढ़ता चलन इस बात का प्रतीक है कि हम आधुनिकता की आड़ में कहीं न कहीं अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। ज़रूरी नहीं कि हर नया ट्रेंड सही हो और उसे अपनाया ही जाए, साथ ही यह भी सही नहीं है कि अपनी परंपराओं को छोड़ दिया जाए। हमारी संस्कृति की गहराई को समझते हुए हमें यह तय करना होगा कि हमें कौन नया ट्रेंड अपनाना चाहिए और कौन सा नहीं। या किसी ट्रेंड को अपनाने के पीछे कोई सार्थक कारण है या नहीं, इस पर भी विचार करना चाहिए । मैं आधुनिकता या पाश्चात्य संस्कृति का विरोधी नहीं हूँ। लेकिन बिना दिमाग लगाए नकलबाजी और दिखावा, मेरी समझ से परे है। इससे बेहतर है कि हम अपनी पुरानी परंपराओं को नए तरीके से अपनाएं, जिससे परंपराओं और आधुनिकता दोनों की अहमियत बनी रहे।

रात में केक काटने और दिखावा करने के बजाय, जन्मदिन का उत्सव अपनी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए भी तो मनाया जा सकता है। जैसे देर रात को जन्मदिन मनाने की जगह जन्मदिन पर सुबह जल्दी उठा जाए। अंग्रेजी में ‘हैप्पी बर्थडे’ गाने के बजाय इसे हिंदी या संस्कृत में गाया जाए। मोमबत्तियां बुझाने की जगह जन्मदिन की शुरुआत पांच दीये जलाकर की जाए। शोर-गुल वाली पार्टियों की जगह कोई धार्मिक कार्यक्रम किया जाए जो मन को शांति और आनंद दे।

यह केवल बोलने की बातें नहीं हैं बल्कि इन सुझावों का अनुसरण मैंने अपने जीवन में भी किया है। इस बार का मेरा जन्मदिन मेरे दिए गये सुझावों की तरह ही मनाया गया।और सच मानिए पारंपरिक तरह से मनाए गये जन्मदिन में जो आनंद और ख़ुशी हुई, वो शोर गुल वाली पार्टियों में कहाँ …

अगली बार जब किसी का बर्थडे हो, तो सोचिएगा कि क्या यह ज़रूरी है कि रात के 12 बजे केक काटा जाए? या फिर हम अपनी पुरानी परंपराओं के साथ नए अंदाज में भी खुशियां मना सकते हैं? किसी भी बदलाव को समझदारी से अपनाना चाहिए। बिना सोचे-समझे किसी भी ट्रेंड को अपनाने से बेहतर है कि हम अपनी सोच को बेहतर बनाएं और सही निर्णय लें। यही हमें एक समझदार और संवेदनशील समाज की ओर ले जाएगा, जहां आधुनिकता और परंपरा का मेल हमें अपनी पहचान से जोड़े रखेगा।

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