जाने कब करना चाहिए उत्पन्ना एकादशी व्रत
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।
*मार्गशीर्ष माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से व्यक्ति को पिछले जन्म के पापों से भी मुक्ति मिल जाती है। उत्पन्ना एकादशी का व्रत करने वालों को इस कथा का पाठ जरुर करना चाहिए, इससे व्रत का पूरा फल मिलता है।*
उत्पन्ना एकादशी 2023 व्रत
*वैदिक पंचांग के अनुसार, 08 दिसंबर शुक्रवार को प्रात: 05 बजकर 06 मिनट से मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि शुरू होगी. यह तिथि अगले दिन 09 दिसंबर शनिवार को प्रात: 06 बजकर 31 मिनट तक है।*
*शास्त्रों के अनुसार एकादशी तिथि में द्वादशी का संयोग वाले दिन व्रत करने का विधान है।*
*अतः उत्पन्ना एकादशी का व्रत 9 दिसंबर शनिवार को करना चाहिए।*
*व्रत के पारण का समय 10 दिसंबर को प्रातः 7: 03 से प्रात: 7:13 तक रहेगा।*
।।उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा।।
*युधिष्ठिर ने पूछा – भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई ? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी गयी ? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?*
*श्रीभगवान बोले- कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था । वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयङ्कर था। उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे। एक दिन सब देवता महादेवजीके पास गये। वहां इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया।*
*इन्द्र बोले – महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती। देब ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा ले ?*
*महादेवजी ने कहा -देवराज । जहां सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षामे तत्पर रहनेवाले जगत्के शरण देनेवाले, सबकी रक्षायें तत्पर रहनेवाले जगत्के स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान है, वहां जाओ। बे तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं – युधिष्ठिर ! महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहां गये। भगवान् गदाधर क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।*
*इन्द्र बोले- देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है.। देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये। जगन्नाथ ! सम्पूर्ण देवता मुर नामक दानव से भयभीत होकर आपकी शरण में आए हैं।*
*भक्तवत्सल ! हमें बचाइये । देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये । जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । दानवोंका विनाश करनेवाले कमलनयन ! हमारी रक्षा कीजिये। प्रभो ! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही शरणमें आ पड़े हैं। भगवन्! शरणमें आये हुए र देवताओंकी सहायता कीजिये । देव ! आप ही पति, आप नेही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण है। आप ही सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। । भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता । भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो ! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण तुर देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है।*
*इन्द्रकी बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले- ‘देवराज ! वह दानव कैसा है ? उसका रूप और बल कैसा है तथा उस दुष्टके रहनेका स्थान कहां है ?”*
*इन्द्र बोले- देवेश्वर ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीके वंशमें तालजङ्घ नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयङ्कर था। उसका पुत्र मुर दानवके नामसे विख्यात हुआ। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयङ्कर है। चन्द्रावती नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है। उस दैत्यने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गलोकसे बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाया है। अनि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। जनार्दन ! मैं सभी बात बता रहा हूं। उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओको तो उसने प्रत्येक स्थानसे वञ्चित कर दिया है।*
*इन्द्र का कथन सुनकर भगवान् जनार्दन को बड़ा क्रोध हुआ। वे देवताओंको साथ लेकर चन्द्रावतीपुरीमें गये । देवतानि देखा, दैत्यराज बारम्बार गर्जना कर रहा है; उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओंमे भाग गये। अब वह दानव भगवान् विष्णुको देखकर बोला, ‘खड़ा रह, खड़ा रह।’ उसकी ललकार सुनकर भगवान्के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे बोले- ‘अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओंको देख।’ यह कहकर श्रीविष्णुने अपने दिव्य बाणोंसे सामने आये हुए दुष्ट दानवोको मारना आरम्भ किया। दानव भयसे विह्वल हो उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णुने दैत्य-सेनापर चक्रका प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों योद्धा मौतके मुखमें चले गये। इसके बाद भगवान् मधुसूदन बदरिकाश्रमको चले गये। वहां सिंहावतो नामकी गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डु- नन्दन । उस गुफामें एक ही दरवाजा था। भगवान् विष्णु उसीमें सो रहे। दानव मुर भगवान्को मार डालनेके उद्योगमें लगा था। वह उनके पीछे लगा रहा। वहां पहुंचकर उसने भी उसी गुहामे प्रवेश किया। वहाँ – भगवान्को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा, ‘यह दानवांका भय देनेवाला देवता है। अतः निस्सन्देह में इसे मार डालूंगा, युधिष्ठर दानव क इस प्रकार विचार करते ही भगवान् विष्णुके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र- शस्त्रोंसे युक्त थी। वह भगवान्के तेजके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान् था। युधिष्ठिर ! दानवराज मुरने उस कन्याको देखा। कन्याने युद्धका विचार करके दानवके साथ युद्धके लिये याचना की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण थी ! वह मुर नामक महान् असुर उसके हुंकार- मात्रसे राखका ढेर हो गया। दानवके मारे जानेपर भगवान् जाग उठे। उन्होंने दानवको धरतीपर पड़ा देख, पूछा- ‘मेरा यह शत्रु अत्यन्त उम्र और भयङ्कर था, किसने इसका वध किया है ?’*
*कन्या बोली – स्वामिन् ! आपके ही प्रसादसे मैंने इस महादैत्यका वध किया है।*
*श्रीभगवान ने कहा – कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्मसे तीनों लोकोक्त मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं ! अतः तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँगों; देवदुर्लभ होनेपर भी वह वर मैं तुम्हे दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।*
*वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।उसने कहा, ‘प्रभो । यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपासे सब तीर्थोंमें प्रधान, समस्त विब्रोंका नाश करनेवाली तथा सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ ।*
*जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिनको उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त हो । माधव ! जो लोग उपवास, नक्त अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रत का पालन फिर करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये ।’
*श्रीविष्णु बोले- कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा।*
*भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं – युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों पक्षोंकी एकादशी समान रूपसे कल्याण करनेवाली है। इसमें शुक्ल और कृष्णका भेद नहीं करना चाहिये। यदि उदयकालमें थोड़ी-सी एकादशी, मध्यमें पूरी द्वादशी और अन्तमें किञ्चित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा’ एकादशी कहलाती है। वह भगवान को बहुत ही प्रिय है। यदि एक त्रिस्पृशा एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो एक सहस्त्र एकादशीव्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशीमें पारण करनेपर सहस्त्रगुना फल माना गया है। अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथिसे विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिये । परवर्तिनी तिथिसे युक्त होनेपर ही इनमे उपवासका विधान है। पहले दिन दिनमें और रातमे भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातःकाल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथिका परित्याग करके दूसरे दिनकी द्वादशीयुक्त एकादशीको ही उपवास करना चाहिये। यह विधि मैंने दोनों पक्षोंकी एकादशीके लिये बतायी है। जो मनुष्य एकादशीको उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाममें, जहाँ साक्षात् भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, जाता है। जो मानव हर समय एकादशीके माहात्म्यका पाठ करता है, उसे सहस्त्र गोदानोंके पुण्यका फल प्राप्त होता है। जो दिन या रातमें भक्तिपूर्वक इस माहात्यका श्रवण करते हैं, वे निस्सन्देह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।*