टिप्पणी – फ़ेक न्यूज़ से बड़ी बीमारी है पेड न्यूज़
(डॉली सिंह)छत्तीसगढ़ परिक्रमा न्यूज नेटवर्कll ख़बरों की दुनिया में फ़ेक न्यूज़ कोई अकेली बीमारी नहीं है. एक ऐसी ही बीमारी है पेड न्यूज़, जिसने मीडिया को अपनी चपेट में ले रखा है. कई बार दोनों का रूप एक भी हो सकता है और कई बार अलग अलग भी. वैसे पेड न्यूज़ की बीमारी को आप थोड़ा गंभीर इसलिए मान लें क्योंकि इसमें बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों से लेकर दूर दराज़ के क़स्बाई मीडिया घराने शामिल हैं.
पेड न्यूज़, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है वैसी ख़बर जिसके लिए किसी ने भुगतान किया हो. ऐसी ख़बरों की तादाद चुनावी दिनों में बढ़ जाती है और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनावी घमासान की शुरुआत हो चुकी है.
चुनावों का ना केवल सरकारों पर असर होता है बल्कि ख़बरों की दुनिया पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है.
समाचार माध्यमों में चुनावी ख़बर प्रमुखता से नज़र आने लगती हैं. नेताओं के चुनावी दौरों और चुनावी वादों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, बैनर और टीवी चैनलों पर लाइव डिस्कशन की तादाद बढ़ जाती है. इस दौरान नेता और राजनीतिक दल अपने अपने हक़ में हवा बनाने के लिए अपने पक्ष की चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं.
इसके लिए मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स में ख़बरों के बीच पेड न्यूज़ का घालमेल इस तरह होता है कि वो एकपक्षीय समाचार या विश्लेषण होते हैं, जो आम मतदाताओं के नज़रिये को प्रभावित करते हैं.
चुनाव आयोग के मुताबिक किसी उम्मीदवार के पक्ष में इस प्रकार चुनाव प्रचार करना जिससे कि वह प्रचार भी समाचार अथवा आलेख जैसा प्रतीत हो, पेड न्यूज कहलाता है। प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया का मानना है कि ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रॅानिक मीडिया में नकद या किसी दूसरे फायदे के बदले में प्रसारित की जा रही हों, पेड न्यूज कहलाती हैं।
हालाँकि, भारत में मीडिया पर भ्रष्टाचार का आरोप बेहद पुराना है। लेकिन, हाल के वर्षों में यह अधिक संस्थागत एवं संगठित हो गया है। समाचारपत्रों और टी.वी. चैनलों पर किसी विशिष्ट व्यक्ति, कॉरपोरेट इकाई, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों आदि के पक्ष में धन लेकर सूचनाएँ प्रकाशित या प्रसारित करने के आरोप लगते रहे हैं। इस मामले में 2010 का बहुचर्चित नीरा राडिया टेप मामला काफी चर्चा में रहा था। इस मामले में खुलासा हुआ था कि धन के बल पर किस तरह कुछ अखबारों और समाचार चैनलों को मनपसंद खबरें चलाने और लेख छापने के लिए निर्देश दिए जा रहे थे।
इसी तरह हाल ही में कोबरा पोस्ट नामक एक वेब पोर्टल ने कई मीडिया हाउसेज के ऊपर एक स्टिंग ऑपरेशन किया जिसमें पेड न्यूज पर कई खुलासे हुए थे। इसमें पता चला था कि कैसे धन के बदले में मीडिया हाउस किसी नेता के पक्ष में या किसी के खिलाफ खबरें चलाने के लिए तैयार हो जाती हैं। वैसे यह साबित करना बेहद मुश्किल होता है कि किसी चैनल पर दिखाई गई विशेष खबर या समाचारपत्र में छपी न्यूज पेड है या नहीं। यही कारण है कि पेड न्यूज पर अभी तक शिकंजा कसने में कामयाबी नहीं मिल पाई है।
हालाँकि, पेड न्यूज के मामले में किसी नेता को अयोग्य घोषित करने का मामला पहले भी सामने आ चुका है। वर्ष 2011 में उत्तर प्रदेश के विधायक रहे उमलेश यादव का मामला सामने आया था। पेड न्यूज के प्रकाशन के लिए खर्च की गई धनराशि की जानकारी छिपाने के आधार पर उन्हें अयोग्य ठहराया गया था। गौरतलब है कि उम्मीदवारों को अपने-अपने चुनावी खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग के सामने रखना पड़ता है। खर्च की भी एक सीमा तय की गई है। लेकिन जब उम्मीदवारों द्वारा खर्च सीमाओं को दरकिनार कर अखबारों में विज्ञापन दिया जाता है तब, चुनाव आयोग द्वारा इसे भी गंभीर चुनावी कदाचार माना जाता है। जाहिर है, पेड न्यूज चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने का एक बड़ा कारक है।
ऐसे में सवाल है कि पेड न्यूज से किस प्रकार की समस्या पैदा होती है?
दरअसल, किसी भी पेड न्यूज का मकसद वोटर्स को गुमराह करना होता है। इससे पाठक को गलत सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिससे वह भ्रमित होता है। लिहाजा, किसी विशेष राजनीतिक दल या उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बनता है और चुनाव परिणाम खासा प्रभावित होता है। जाहिर है, इससे पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया की उम्मीदों को झटका लगता है और लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट आती है।
दरअसल, पेड न्यूज का एक दूसरा स्वरूप भी है। मसलन- अगर कोई उम्मीदवार एक ऐसा विज्ञापन देता है जो वोटर्स को गुमराह करने वाला नहीं होता है। लेकिन, अगर वह उस विज्ञापन के खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को नहीं देता है तो वह पेड न्यूज की श्रेणी में आता है। दरअसल ऐसा करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत लागू चुनाव नियम संहिता,1961 का उल्लंघन है। इसी तरह, संबंधित समाचारपत्र तथा न्यूज चैनल भी चुनाव उम्मीदवार से मिली आय को अपने बैलेंस शीट में नहीं दर्शाते हैं। इसलिए, वे कंपनी अधिनियम और आयकर अधिनियम दोनों का उल्लंघन करते हैं।
दूसरी तरफ, मीडिया द्वारा पेड न्यूज को बढ़ावा देने से लोकतंत्र विरोधी गतविधियों को शह मिल रही है। हालाँकि, मीडिया लोगों के विचारों को प्रभावित करने या परिवर्तित करने में अहम भूमिका निभाता है। इसका काम न केवल देश के सामने मौजूद दिक्कतों पर सुझाव देना है। बल्कि, लोगों को शिक्षित और सूचित करना भी है ताकि लोगों में जागरूकता को बढ़ावा मिल सके। पर, हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं, जो यह बताते हैं कि मीडिया का झुकाव सच की खोज के बजाय सियासी दलों को फायदा पहुँचाने की तरफ ज्यादा हो गया है।
इसे लोकतंत्र की विडंबना ही कहेंगे कि जिस मीडिया को लोकतंत्र का फोर्थ पिलर कहा गया है, वह मीडिया आज पूंजीपतियों का हिमायती बनता दिख रहा है। सच तो यह है कि जैसे-जैसे मीडिया पर पूंजीपतियों का शिकंजा कसता जाता है, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज्यादा से ज्यादा जनविरोधी होता जाता है। इसलिये, आम लोगों की जिन्दगी की सही तस्वीर और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच एक फासला बढ़ता चला जाता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि जब मीडिया पूंजी की ताकत से संचालित होता है तब सिस्टम के पक्ष में ही जनमत तैयार करने की कोशिश होती है। यह भी एक सच्चाई है कि मौजूदा मीडिया सिस्टम के पक्ष में जनमत तैयार करने के साथ-साथ एक उद्योग के रूप में मुनाफा कमाने की होड़ में भी शामिल हो गया है और इस होड़ के कारण ही हमारा लोकतंत्र एक अपराधी को भी अपना प्रतिनिधि मानने को बेबस है। जाहिर है, पेड न्यूज का इस्तेमाल सच पर पर्दा डालने के एक हथियार के रूप में हो रहा है।
दरअसल, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्राथमिकता होती है। लेकिन, ऐसा न हो पाना किसी भी सिस्टम के लिए चिंता का विषय है। गौर कीजिए कि अगर राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाना शुरू कर दें, मीडिया लोकतांत्रिक मूल्यों को भूलकर पूंजीपतियों का हिमायती बन जाए, वोटर्स ईमानदार के बजाय एक अपराधी को वोट देना शुरू कर दें तो, इस व्यवस्था का क्या होगा? यकीनन, हर तरफ अराजकता का माहौल पैदा हो जाएगा और सिस्टम पंगु हो जाएगा। जाहिर है, ऐसी स्थिति से बचने के लिए कई स्तरों पर सुधार की दरकार है।
2016 में चुनाव आयोग ने देश में चुनाव सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए थे। इन सुझावों में एक यह भी था कि निष्पक्ष चुनाव के लिए पेड न्यूज, ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल पर बैन लगाया जाए। दरअसल, ये वो कोशिशें हैं जिनके तहत पैसे की उगाही और आचार संहिता का मजाक बनाना आम बात हो गई है। एक अध्ययन के मुताबिक ज्यादातर राजनीतिक दलों के कुल बजट का लगभग 40फीसदी मीडिया संबंधी खर्चों के लिए आवंटित होता है। लिहाजा, मीडिया और सियासी दलों दोनों पर ही शिकंजा कसना वक्त की दरकार है।
इसके लिये जनप्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 123 में संशोधन करके पेड न्यूज के लिए धन के आदान-प्रदान को चुनावी कदाचार घोषित किया जाना चाहिए। हालाँकि, अनुच्छेद 19 ए मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी को सुनिश्चित करता है। लेकिन, समझना होगा कि यह आजादी एकतरफा नहीं है बल्कि, कुछ शर्तों के तहत यह आजादी दी गई है। जाहिर है, मीडिया को अपनी शक्ति के सही रूप में उपयोग करने का सबक मिलेगा और इससे समाज में आमूलचूल परिवर्तन आ सकेगा।
पेड न्यूज़, पर अपने विचार रखे हुए कोरबा प्रेस क्लब के सचिव दिनेश राज ने चौथे स्तंभ को ऐसी स्थिति से बचाने की हिदायत देते हुए कहा कि अखबार को अपनी गरिमा बना कर रखना चाहिएl
कोरबा प्रेस क्लब के कोषाध्यक्ष रंजन प्रसाद का भी मानना है कि अखबार के लिए राजस्व जरूरी है परंतु किसी के कहने पर या पैसा देने पर खबर लगाना सही नहीं हैl
जिला कोरबा डिजिटल मीडिया एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेश मिश्रा ने भी अपनी सहमति देते हुए कहा की उनका भी मनाना है कि फेक न्यूज से बड़ी बीमारी पेड न्यूज हैl
जनकर्म कोरबा के ब्यूरो प्रमुख अनुप जयसवाल का मनाना है कि पेड न्यूज कहीं न कहीं गलत है क्योंकि इससे सही तथ्य लोगों के सामने नहीं आता हैl
मैं स्वयं कई प्रतिष्ठित अखबारों में विज्ञान प्रबंधक के रूप में कार्य कर चूका हूं चुनाव के वक्त एक तरह से अख़बार समूह के लिए रेवेन्यू बढ़ाने का मौक़ा होता है. तो वे इस तरह की रणनीति अपनाते हैं जिससे नेताओं से कमाई हो सकेl